۴ آذر ۱۴۰۳ |۲۲ جمادی‌الاول ۱۴۴۶ | Nov 24, 2024
روز ازدواج

हौज़ा/हज़रत फ़ातिमा ज़हेरा स.अ का अक्द १ ज़िलहिज्ज, सन २ हिजरी को हज़रत अली अलैहिस्सलाम के साथ हुआ आपने वह उदाहरण पेश किया कि जो तमाम औरतों के लिए एक मिसाल हैं।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार , तमाम हम्द व सिपास है उस ज़ात के लिए कि जिसने तमाम मख़लूक़ात को इंसान के लिए ख़ल्क़ किया और इंसान को ख़ुद अपने लिए ख़ल्क़ करके उसकी ग़रज़े ख़िलक़त को भी वाज़ेह कर दिया।

मैंने जिन्नातों और इंसानों को पैदा नहीं किया मगर यह कि अपनी इबादत के लिए

इबादत का दायरा इंतेहाई वसी है इसीलिए उलमा ने इबादत को दो हिस्सों में तक़सीम किया हैः

  1. इबादते आम 
  2. इबादते ख़ास

  इबादते आम: यानी हर वह काम जो रज़ायते परवरदिगार से तअल्लुक़ रखता हो वह इबादत क़रार पाएगा चाहे वह सोना, जागना, उठना, बैठना, सदक़ा देना या और दूसरे मुस्तहब्बात।

  इबादते ख़ास: मसलन नमाज़, रोज़े या दूसरे वाजिबात।

  इंसान अपनी ज़िन्दगी में बहुतसी इबादाते मुस्तहेब्बा अंजाम देता है उन्हीं में से एक अक़्दे इज़देवाज (शादी) भी है कि जिसका सिलसिला अबूल बशर हज़रते आदम अलैहिस्सलाम से शुरु हो कर ता रहती दुनिया क़ाएम व दाएम रहेगा।

  अक़्दे इज़देवाज (शादी) को ख़ुदा ने किस अंदाज़ से अपनी बंदगी का ज़रिया क़रार दिया है उस का अंदाज़ा इस हदीस से लगाया जा सकता हैः "इस्लाम में ख़ुदा के नज़दीक कोई ऐसी बुनियाद नहीं डाली गयी जो शादी से ज़ियादा महबूब हो।

  जैसा कि पहले ज़िक्र किया गया कि ख़ुदा की इबादत में से एक इबादत का ज़रिया अक़्द (शादी) भी है और यह भी वाज़ेह है कि इबादत के मराहिल बहुत सख़्त हैं लिहाज़ा इन मराहिल को किस आसानी से तय किया जाए इसके लिए हमें मासूमीन अलैहिमुस्सलाम की इबादत पर निगाह करनी पड़ेगी। चूँकि हमारा मौज़ू इमतेयाज़ाते अक़्दे फ़ातिमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा है लिहाज़ा इस जगह पर आप के अक़्द के चंद इम्तेयाज़ात बतौर नमूना पेश किये जाएँगे ताकि समाज आप की सीरत पर अमल करके इस अज़ीम और मुबारक इबादत से सुबुकदोश हो सके।

  जनाबे फ़ातिमा ज़हरा (स.अ) की शादी के हर जुज़ को रसूले अकरम (स) ने इस अंदाज़ से अंजाम दिया है कि ज़माना चाहे भी जो हो हर एक उसे बख़ूबी बा आसानी अंजाम दे सकता है उस पाकीज़ा शादी के इमतेयाज़ात यह हैं:

  औरत के हुक़ूक़ का तहफ़्फ़ुज़

  आज आलमे इस्लाम पर तोहमतों की यलग़ार कुछ कम नहीं है और यह कहा जाता है कि इस्लाम में औरत का कोई पास व लिहाज़ नहीं है लेकिन काश दुनिया हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स.अ) के तरीक़ए अक़्द पर निगाह करें कि जब हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने जनाबे फ़ातिमा ज़हरा (स.अ) से शादी के लिए हज़रत रसूले ख़ुदा (स) के घर तशरीफ़ ले गये और अपनी ख़्वाहिश का इज़हार किया तो पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने फ़ौरन उसका जवाब नहीं दिया कि मुझे यह रिश्ता मंज़ूर है बल्कि उस हुजरे में गये जहाँ शहज़ादिए कौनैन हज़रत फ़ातिमा (स.अ) तशरीफ़ फ़रमा थी और आँ हज़रत (स) ने तलबे रज़ायत के लिए हज़रत अली (अ) की ख़्वाहिश बयान की।

  इस तरज़े अमल से पैग़म्बरे अकरम (स) ने रहती दुनिया तक पैग़ाम पहुँचा दिया कि इस्लाम जब्र व तशद्दुद का काएल नहीं है, बग़ैर औरत की मरज़ी के शादी करना ज़ुल्म है।

  महेर
  अगर आज हम अपने समाज का जाएज़ा लें तो हमें मिलेगा कि लड़की (दुल्हन) वाले महेर की रक़म को इस दर्जा मोअय्यन करते हैं कि लड़के (दुल्हे) वालों का इस रक़म का अदा करना दुश्वार और मुश्किल हो जाता है, और ज़ियादातर देखने में यह आया है कि लोग लम्बी लम्बी महेर पर राज़ी होने के बाद उसे अदा नहीं करते बल्कि उसे माफ़ कराने की फ़िक्र में रहते हैं।

  पैग़म्बरे अकरम (स) ने इस दुश्वारी का भी ख़ात्मा इस तरह कर दिया कि हज़रत अली (अ) को हुक्म दिया कि तुम मर्दे शुजाअ हो तुम्हे ज़िराह की ज़रूरत नहीं है लिहाज़ा उसे बेचकर फ़ातिमा (स.अ) का महेर अदा करो, नफ़्से पैग़म्बर ने अपनी ज़िरा को बेचकर महेर की रक़म हुज़ूर (स) के हवाले कर दी, और उस रक़म के तीन हिस्से किये गयेः

एक हिस्सा हज़रत फ़ातिमा (स) के घरेलू ज़रूरियात के लिए।

  दूसरा हिस्सा शादी के अख़राजात (ख़र्च) के लिए।

  और तीसरा जनाबे उम्मे सलमा के हवाले किया और कहा जब शादी हो जाए तो यह रक़म हज़रत अली (अ) के हवाले कर दी जाए ताकि अली उस रक़म के ज़रिए अपने वलीमे का इंतेज़ाम करें।

  काएनात के अज़ीम शख़्स की बेटी की शादी जब इस सादगी से हो तो फिर हमारे लिए सोचने की बात यह है कि हमें किस तरह शादी के उमूर को अंजाम देना चाहिए, लेकिन अफ़सोस के हमारे समाज में सीरते जनाबे फ़ातिमा ज़हरा (स.अ) को नज़र अंदाज़ करके महेर के लिए लाखों और करोड़ों का सौदा करके सिर्फ़ हज़रते ज़हरा (स.अ) की ही तकलीफ़ का सबब नहीं बनते बल्कि पैग़म्बरे अकरम (स) को भी अपने इस अमल से अज़ीयत देते हैं।

  एक मिसाली शादी

  जब अक़्द के सारे मुक़द्देमात अपनी तकमील तक पहुँच गये तो वह वक़्त भी आया कि कौनैन की शहज़ादी लिबासे इस्मत व तहारत में मलबूस हो कर मुख़्तसर से जहेज़ के साथ क़सीमे नार व जन्नत के घर तशरीफ़ लायीं, रुख़सती भी बहुस्ने ख़ूबी यूँ अंजाम पायी कि ना ही लड़की वालों को मुश्किलों का सामना करना पड़ा और ना ही लड़के वालों को कोई परेशानी हुई, आँ हज़रत (स) ने शादी के फ़ुज़ूल ख़र्चों पर तवज्जो देने के बजाए ज़ौजा और शौहर की ज़िंदगी के बारे में ज़ियादा फ़िक्र की, लेकिन आज मुसलमान, रसूले इस्लाम (स) की इन सुन्नतों को बालाए ताक़ रखकर शादी में फ़ुज़ूल की सजावट, मैरेज हाॅल और बेबुनियाद रूसूमात पर अपना पैसा ख़र्च करके बड़ा फ़ख्र महसूस करते हैं।

  हमने अपनी इस मुख़्तसर तहरीर में जनाबे फ़ातिमा ज़हरा (स.अ) के अक़्द के इम्तेयाज़ात के चंद नमूने पेश किए उनके अंदर ऐसे शवाहिद मौजूद हैं कि जिनकी रौशनी में समाज शादी ब्याह के मामलात को बा हुस्ने ख़ूबी और सादगी से निपटा सकता है अगरचे ख़ुद बीबी ए दो आलम (स.अ) की शादी के इम्तेयाज़ात का मौज़ू अपने आप में एक तहक़ीक़ी काविश का तालिब है जो फ़िलहाल हमारे पेशे नज़र नहीं है और ना ही ज़ेरे नज़र शुमारा इस का मोतहम्मिल हो सकता है लिहाज़ा इन चंद नमूनों के पेश करने पर ही इक्तेफ़ा करते हैं, उम्मीद है कि बीबी ए दो आलम हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स.अ) की शादी के इन चंद इम्तेयाज़ात की रौशनी में हमारे समाज में होने वाली शादियाँ भी अपने आप में मुमताज़ क़रार पाएँगी।

  आख़िर में रब्बे करीम से दुआ है कि हमारे समाज को तमाम उमूर में बिलख़ुसूस शादी के मौक़े पर सीरते हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स.अ) पर अमल करने की तौफ़ीक़ इनायत फ़रमाये। आमीन.
यौमे अक़्द हज़रत फ़ातिमा ज़हेरा स.अ और अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली अलैहिस्सलाम
१ ज़िलहिज्ज, सन २ हिजरी मुबारक हो,

लेखक: मौलाना सैय्यद बेज़ाअत हुसैन ज़ैदपूरी

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